भीड़ के समंदर में, उमस भरी चिलचलाती धूप, रेंगते ट्राफिक के बीच बसों में जानवरों की तरह ठुसे लोगों को आम आदमी कहते हैं। चौराहों पर थमे ट्राफिक, वाहनों जहरीले धुए के बीच साइकिल और ठेले के साथ खड़े जीव को भी आम इंसान कहते हैं। हमारी शहर आम और वीआईपी इन्सानों की दो बिरादरी अलग-अलग मुहल्लों में पाई जाती हैं।
वीआईपी वाले प्राणी कारों में चलते हैं, सूरज ढलते ही ये होटलों और क्लबों की शोभा बढ़ाते हैं और शहर आबोहवा को बिगाड़ने में आपना योगदान निरंतर देते रहते हैं। और यहीं जीव सरकारी दफ्तरों में बैठकर आम इन्सानों की जिंदगी सवांरने की योजना बनाने का नाटक करते है।
ये पैदल नहीं चलते, मार्निंग वॉक करते हैं। ये नाश्ता नहीं स्नैक्स, शाम को रोटी दाल नहीं ये डिनर से काम चला लेते हैं। हमेशा व्यस्त होने की कोशिश में खुद अपने से परेशान जो नजर आए तो समझ लो वो आम इंसान नहीं वीआईपी कैटेगरी वाला जीव हैं। लेकिन जनता इनसे कितना परेशान हैं, ये इनकी सोच के दायरे में नहीं आता हैं।
- – खैर चलिये बात करते हैं आम आदमी की, जिनकी सड़कों पर जिंदगी, फुटपाथों पर घर, चौराहों पर कार की शीशे साफ करती निस्तेज कमजोर काया, होटलों और चायखानों के बाहर भूख से लोगों की आंखों में झांककर देखने की कभी हिमाकत तो करो। आपके फेके पत्तलों से अनाज़ का अंश बटोरने वाली काया भी इंसान कहलाती हैं। अर्द्धनग्न बच्चों के हाथ में कटोरा, उलझे बाल, नंगे पैर कमजोर शरीर समेटे ये नाचीज भी इंसान कहलाते हैं। जिनके लिए वातानुकूलित कम्पनी में बैठकर आप सब योजना बनाते हैं और योजनाओं की इन्हीं फाइलों के बीच खोकर दिन गुजारते हैं।
- – फर्क की इस दीवार के दो चेहरे हैं लिखावट और बुनावट में दीवार का एक हिस्सा आज कल की खुशनुमा सरकारी इबारत का सच पेश करते हुए दिखेगा, दूसरी तरफ दोज़ख़ी जिंदगी का वो चित्र नजर आएगा। जिसमें भूख, गरीबी, बेबसी, दुत्कार और मजबूरी की दास्तां चस्पा हैं। समय का तकाजा हैं, फर्क को खत्म करों, योजनाओं को तो ईमानदारी के साथ जमीन पर उतारों, बयानों के जोखिम से बचों, बदलाव की बयार का रुख उस तरफ मोड़ो जहां आज भी आम इन्सानों का जमावाड़ा हैं, बसेरा है।