दर्द और कचोटन मेरे जिंदगी का हिस्सा है, मैं मजदूर हूं, रोटी की चाहत का हर मुमकिन सौदागर हूं। धीरे-धीरे गांव में पसर रहे सन्नाटे की पहचान बन गया। लेकिन गांव की महक और चाहत हमें रोके रही। भूख और गरीबी के बीच बढ़ते याराना ने हमें तमाशबीन बना दिया। भूख और अपमान की दुनिया से उपजी लाचारी का मैं सच बन गया। सुना था शहर में रोजगार हैं, अट्टालिकाएं और सड़कों का जाल है।
रोजगार की तलाश में गांवो को लांघा, सपनीली दुनिया में कदम रखने की चाहत को समेटे शहर पहुंचा। पॉलिथीन का एक बोरा, टिन के डिब्बे में सहेज के रखे गए माई की हाथ की पोई रोटी, नमक और प्याज था। चलते समय मां की डबडबाई आंखें और लाचारी हमें भेद रही थी। निगाह चुराते पास पहुंचा माई ने पोटली पकड़ाते हुए सिर्फ इतना बोला, भूख लगे तो खा लेना।
पलायन की पीड़ा, मां की बोझिल आंखें और लाचारी मेरे सामने थी लेकिन कल की चाहत को समेटे मुम्बई पहुंच गया। जैसे-जैसे अंधेरा रोशनी को छीन रहा था, मन की परेशानी बढ़ती जा रही थी। ट्राफिक का शोर व इंसानी सैलाब के बीच फुटपाथ के एक कोने पर लेटा ही था, खाकी वर्दी की गालियों से सनी कर्कश आवाज से सहम गया। बूट की मार से उठ बैठा, कहां से आए हो, फुटपाथ तेरे बाप का है।
मां-बहन के गालियों के साथ डंडा फटकारते सामने खड़ा था कानून का रक्षक। ये शहर का पहला दिन था, बोरे और टिन के डिब्बे में समाई अपनी पूंजी को समेटे आगे बढ़ा पर कहां जाऊं, ये शहर न हमें जनता हैं न मैं शहर को। मैं भी इस देश का नागरिक हूं, घर नहीं, पैसा नहीं, तो क्या इज्जत उन्हीं को मिलती हैं। जो बेईमानी कर महलों में रहते हैं, आलीशान कारों में चलते हैं। सपनों के दरकते वृक्ष की तरह मैं असहाय था। सपने थे शहर में कमाने के, अपने मुन्ना को पढ़ाने के और उसे उस जिंदगी और अपमान से बचाने के जो हमने जिए और भोगे थे।
मुम्बई के ठोकरों ने एक बार फिर पलायन को मजबूर किया, गरीबी दूर करने का सपना दिल्ली खींच लाया था। दिन बीते, महीने भी रफ्तार से आगे बढ़ते-बढ़ते साल में बदल गए लेकिन रोजगार की चाहत, बेरोजगारी से बाहर निकालने को तैयार न थी। गांव के कुछ लोग बताते थे, दिल्ली में रिक्शा चलाने को मिल जाएगा लेकिन उसके लिए भी गारंटी चाहिए थी। लाचारी फिर सपनों को तोड़ते हुए सामने थी। फिर वहीं सड़क, वहीं फुटपाथ और फिर वहीं अपमान। दिल्ली की तड़क-भड़क और मटमैले कपड़ों में सिमटी मेरे देह, भूख और अपमान का सच बन गई थी।
वहीं मैं था जो गांव में बसता था, वहीं भारत जो गांव का देश कहलाता हैं उसी का नागरिक मैं भी हूं। सोच के बवंडर के साथ एक छोटे चायखाने के सामने अचानक मैं ठिठक गया, याद आ गया घर का वह कच्चा आंगन, मां के कांपते हांथों का वह दृश्य सामने आ गया, जो गुड़ की चाय में मातृत्व की मिठास डालकर देने का जुगाड़ किसी न किसी तरह कर देती थी। यहां तो खुदकों पहचानना मुश्किल लग रहा था, जेब टटोलने की कोशिश नहीं था की तेज बारिश ने घेर लिया।
सुना है यहां चाय 10 रुपये की मिलती है और चीनी 50 रुपये के ऊपर थी। लगता है हम शहर कमाने नहीं, कटीले तारों के बीच अपने को झोंकने आए है। मजदूरी मिलती नहीं सुना हैं बड़े-बड़े बिल्डरों ने बड़े-बड़े घोटालें कर दिया और बिल्डिंग निर्माण पर अदालत ने रोक लगा रखी हैं। कमाई की आशा का ये अंतिम पड़ाव भी हम से दूर भागता दिखाई देने लगा। भीगती देह, भूख की मार और टूटे सपनों का सौदागर बनकर मैं असहाय एक अंजान शहर में अकेला खड़ा था।
गांव की जमीन विकास निगल रही थी, शहर की धरती भीड़ और घोटालों का शिकार हो रही थी। अब कहां जाए, कमाने के लिए निकला था, गांव लौट नहीं सकता, मां इंतजार में होगी कि बेटा रोजगार का सपना समेटे कब लौटेगा, शायद हर आहट में मुझे देखती होगी। विकास के अंधड़ में खो गया एक गरीब। गांव तो अच्छा था लेकिन हमारे प्रधान ने विकास कि पगडंडियों को अपने घर की तरफ मोड़कर गांव को भी शहर बनाने के सारे गुणों का केंद्र बना दिया।
टूटे सपनों का मसीहा बनकर मैं शेष रह गया। सपनों की तबाही से उपजा सच बनकर कल जहां से चला था आज भी उसी जगह ठहरा सहमा और ठगा हुआ सामने हूं।