आप हमारा इम्तहान मत लो, हम मुकम्मल स्मार्ट हैं। विश्वास न हो तो सरकारी फाइलों को पलट कर देख लीजिए। ये मेरी नफासत है कि खुद अपनी तारीफ नहीं करते। लेकिन पता नहीं क्यों हाईकोर्ट मेरी नफासत भरी नब्ज को टटोलता रहता है। जी हां, ये तस्करा उत्तर प्रदेश के गंदगी से लबरेज़ किसी अदना शहर का नहीं, मसला प्रदेश की राजधानी लखनऊ का है।
कहते हैं, तहज़ीब के दायरों में जिंदगी का अक्स यहां के हर गुंचे में चस्पा नजर आ जाएगा। वैसे तो लखनऊ का अपना शायराना मिजाज़ है लेकिन हम पान की पीक का हिसाब नहीं रखते। बस, सड़क और डिवाइडर पर अपनी छाप छोड़कर एहसास करा देते हैं कि हम लखनऊ हैं और स्मार्टनेस मेरे रंगीनियत का हिस्सा है।
पता नहीं क्यों हाईकोर्ट को मेरी साफगोई से रश्क है। आए दिन मेरे दिल को चाक कर जाते हैं माईलार्ड। हम, यानी लखनऊ भाईचारे और सहअस्तित्व की बेहतरीन मिसाल की इबारत लिखने में मशगूल रहते हैं और लखनऊ हाईकोर्ट के माइलार्ड फरमाते हैं, आपके शहर कि सड़कों और फुटपाथों पर अतिक्रमण क्यों।
कौन समझाए हुजूर को, ये गली ये कूचे, सड़कें और चौबारे हैं तो सरकार के और सरकार है जनता की तो ये अतिक्रमण कहां और कैसे हुआ। जनता मलिक, सरकार केयरटेकर तो इसे अतिक्रमण नहीं कहते, मालिक अपनी जमीन पर विचरे या पसरे इससे हुजूर को क्या तकलीफ।
हुजूर कहते हैं कि कुत्ते और आवारा जानवर कैसे सड़कों पर काबिज हैं, इतना ही नहीं एनिमल राइट्स से जुड़े संगठनों का ब्यौरा भी मांगा है। गज़ब का सवाल है, जवाब देने की मजबूरी हैं क्योंकि सवाल माइलार्ड का है, सभी को पता है लखनऊ नगर निगम अपनी कारस्तानियों से उबर भी नहीं पाता कि हाईकोर्ट के आलाहाकिम सवाल-दर-सवाल दाग कर जीना दूभर कर देते हैं।
माइलार्ड को समझना होगा सड़कों पर काबिज़ कुत्ते, छुट्टा जानवर, हमारे माननीय पार्षदों के तबेले में जमा गाय और भैंसे वास्तव में स्मार्ट शहर की छाती पर उकेरी गई हसीन तस्वीर का हिस्सा हैं। हमारी सड़कें आवारा पशुओं का रैनबसेरा हैं, जानवरो से सनी बिखरी आकृतियां ये बताती हैं कि लखनवी मिजाज़ किस तरह से ऊपर वाले की हर उत्पत्ति से प्रेम और सौहार्द्र का भाव रखता है। हुजूर, नगर निगम के अफसरों पर भरोसा रखें, वे आपके हर आदेशों, निर्देशों को गंभीरता से लेते हुए फाइलों में कैद कर देते हैं ताकि वो सुरक्षित रहे आम अवाम उस पर निगाह तक न डाल सके।
हम स्मार्ट हैं क्योंकि दिल्ली वाली सरकार ने हमें स्मार्ट करा दिया है। करोड़ों का बजट है, कंट्रोल रूम है, बाकायदा मीटिंग बैठक और सलाम कि परंपरा बरकरार है। फिर भी हाईकोर्ट वाले हुजूर कहते हैं, आपका शहर गंदा है, नाले बजबजा रहे हैं, नालियां सड़क पर आकर अपनी हैसियत का दावा पेश कर रही हैं।
ये सवाल भले ही जवाब के इंतजार में हरारत का शिकार नजर आता हो लेकिन सोचिए कोई शहर कैसे गंदा हो सकता है। जब नगर निगम दिन-रात सैकड़ों गाड़ियों और हजारों कर्मचारियों पर करोड़ों-करोड़ दिल खोल कर खर्च कर रहा है। बड़े दिलवालों की बात भी बड़ी होती है, हम खर्च करने में अव्वल हैं।
अब कूड़ा क्यों नहीं उठ रहा, नाले नालियां क्यों उफान पर हैं, समझने कि कोशिश करें, ये हमारी कार्यशैली का नायाब हिस्सा हैं। एक आम आदमी को किसी भी हालात में जीने का हुनर सिखाने का अहम पड़ाव है। बेहतर हवा, साफ सुथरी सड़कों और मुहल्लों में तो हर कोई जी सकता है। लेकिन लखनऊ क्योंकि स्मार्ट है इसलिए हर विपरीत हालात में जीने का नुस्खा सिर्फ हमारे पास है।
इस नुस्खे में कमाई, कमीशन और लूट की वैतरणी पार करने का जोखिम भरा सच भी छिपा है तो वहीं माइलार्ड के आदेशों को गहनता से समेटने का जज़्बा भी। हुजूर बस नजरिये का फर्क है, आप भी हमारे तर्ज़ पर देखने का तरीका बदलिये फिर कहीं भी हुक्मउदुली नजर नहीं आएगी।
आप कहते हैं मैनहोल में बच्चे क्यों गिर जाते। शब्द पर गौर करें माइलार्ड गिर जाते हैं हम गिराते नहीं। स्मार्ट होने के नाते हमारी कोशिश है कि लखनऊ का हर बाशिंदा स्मार्ट बने, खुले मैनहोलों को देख कर चले। बस इतना भर कर लो तो हर बच्चा व आदमी मैनहोल में गिरने से तौबा करता नजर आयेगा। हुजूर इस शहर को कार्यदायी संस्थाएं चलाती हैं और कार्यदायी संस्थाओं को नगर निगम के अफसर, कर्मचारी, पार्षदों की छत्र छाया में चलने वाले शागिर्द चलाते हैं।
सौहार्द्र और भाईचारे का पुख्ता इंतजाम है। एकाध घटनाओं पर आप इतना हलकान मत हुआ करिए। माइलार्ड 40 लाख की आबादी में एक दो का मैनहोल में गिरना तो हमारी काबलियत और पुख्ता इंतजामों का सुबूत हैं। घटना पर नहीं, हमारे दावों व सुबूतों पर विश्वास करें बस हर तरफ खूबसूरती का एहसास आपको झंकरित कर देगा। बस आपसे गुजारिश है, आदेशों और निर्देशों का सिलसिला थोड़ा थाम कर आगे चले।
भला बताएं सब कुछ भलाचंगा था कि अचानक डेंगू पर सवाल दाग दिया। महामहिम कि ऊंची कुर्सी और सामने अदना सा मच्छर। मच्छरों पर काबू पाने की ताकत किसमें है। हम यानी लखनऊ, जब बड़े-बड़े विचरते जानवरों से प्रेम भाव रखते हैं तो बिना हड्डी वाले जीवों के विनाश पर कैसे हामी भर सकते हैं।
फिर भी फॉगिंग करते हैं, करोड़ों की मशीन खरीद कर सैकड़ों कर्मचारी लगाते हैं, हजारों का डीजल गटक जाते हैं मतलब चोरी कर लेते हैं। फिर भी ये अदना जीव जोखिम उठाने से बाज नहीं आता तब माइलार्ड नगर निगम के जांबाज अफसर क्या करें। आप बताएं सरकटे नाले में डूबकर शहीद हो जायें। डेंगू व मलेरिया आफत नहीं बल्कि छोटे-छोटे जीवों की उत्पात भरी जीवनशैली का सच हैं।
आवारा कुत्तों से नफरत पर भी हुजूर सवाल उठा देते हैं। ये सरासर नाइंसाफ़ी है, सबको जीने और अपने मन मुताबिक काटने का मौलिक अधिकार है। क्योंकि हम स्मार्ट हैं तो कुत्ते, बिल्ली व आवारा जानवरों से बचने की तरकीब शहर के हर स्मार्ट बंदे को खुद सीखनी चाहिए। इस पूरी प्रक्रिया में नगर निगम का कुछ लेना-देना नहीं। नगर निगम को भले ही कठघरे में खड़ा करें, जहां माई-बाप आप रहते हैं वहां गंदगी तो छोड़िए मच्छर, डेंगू व मलेरिया तक भटक नहीं सकते। माइलार्ड बस यहीं से नजरिया बदलने की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए।
अपने को बदलिए, जो सत्य हैं उसे बर्दाश्त करने की क्षमता हासिल करने की सलाह है वरना आदेशों के उड़ते चिथड़े, बेलगाम चलती डेयरी, बिकते पालीथिन व तेजाब हर तरफ प्रतिबंध के बावजूद दिख जाएंगे।स्मार्ट शहर के ठेकेदार प्रतिबंध के आदेश फाइलों में दर्ज कर चुके हैं और इसे मानना आप ही नहीं शहर के लाखों-लाख बाशिंदों की मजबूरी है। तल्खी के साथ हुजूर से गुजारिश है हकीकत को समझिए, आदेशों व निर्देशों का दौर बेमानी हो चुका हैं।