दामाद भू-माफिया, दामाद की सास की पार्टी का एक मुख्यमंत्री भी जमीन घोटालें की घेराबंदी में बदनामी का कटोरा लिए सामने हैं। जी हां ये मुख्यमंत्री है कर्नाटक के, इनकी पत्नी बी.एम पार्वती को मैसूर के एक पॉश इलाके में मुआवजे के रूप में एक बेशकीमती भूखंड दिया गया। जब सैया मुख्यमंत्री तो मुआवजा भी उसी स्तर का होना चाहिये था। पार्वती महोदया की जमीन अधिग्रहीत हुई थी। मोहतरमा किसान की पत्नी तो थी नहीं, कि जमीन भी जाए और मुआवजा भी लटक जाए।
सी.एम सिद्धा रमैया वैसे भी शौकीन तबीयत के धाकड़ कांग्रेसी है, सुना है 45 लाख घड़ी पहनकर पूरे कर्नाटक को समय पर चलाने की सलाह देते रहते हैं। खैर मसला पत्नी का है तो पति होने के नाते प्यार, रिश्ते, पद, गरिमा और हनक और रहम की गुंजाइश तो बनना लाजमी है। बस यहीं से विवाद के बहीखाते में मुख्यमंत्री सिद्धा साहब का नाम सुर्खिया का सबब बन गया। गवर्नर ने शिकायत मिलते जांच का आदेश क्या दिया कि सिद्धा साहब कर्नाटक हाईकोर्ट पहुंच गए। राहत की उम्मीद थी लेकिन राहत का सपना जांच के दायरे में आ गया।
हुआ कुछ यों पार्वती महोदया कि मैसूर तालुक के कसबा होवली के कसारे गांव में 3.16 एकड़ जमीन थी। लेकिन बताया जाता है इस जमीन पर पार्वती का कोई कानूनी हक न था। फिर भी गांव की जमीन का मुआवजा मैसूर के सबसे पॉश इलाके में देकर नौकरशाहों ने अपना फर्ज पूरा किया। शिकायत पर गवर्नर साहब तुरंत जांच का आदेश दे डाला। हाईकोर्ट के आदेश में भी सिद्धा साहब को बदले की राजनीति नजर आई। गज़ब का हिकमत का सियासी नजरिया है बदले कि राजनितिका।
अपराधी मारा जाए तो जाति की राजनीति, खद्दर धारी में फंसे तो उसकी साख गिराने का विपक्षी खेल। हर अपराधी, घोटालेबाज और भ्रष्टाचारी कोर्ट के आदेश को भी राजनीतिक बदले की भावना मानकर आपने को पाक साफ बताने में हिचकता नहीं। एक तरफ कोर्ट को चुनौती तो दूसरी तरफ एक शब्द सत्य की जीत का मुहावरा भी साथ में पेश कर दिया जाता हैं। पता नहीं शब्द के मर्म का का सत्य क्या है। दिल्ली में शराब कांड आप पार्टी के तमाम शीर्ष महापुरुष जेल सुख भोग कर जमानत पर हैं।
वहां भी सत्य की जीत का भजन का पाठ करते हुए अपने को पाक साफ बताते हुए दावा किया जा रहा है कि उनकी भी छवि विपक्ष घूमिल कर रहा हैं। यहां भी जेल यात्रा की व्यवस्था अदालत के आदेश पर हुई थी। सुल्तानपुर ज्वैलरी शॉप में हुई करोड़ों की डकैती का आरोपित मारा गया तो जाति के चलते उसे मुद्दा बनाया गया, जबकि दर्जनों केस और जेल यात्रा की पवित्र रस्म अदायगी वह पहले से ही कई बार कर चुका था।
आतंकवाद में शामिल कोई मारा जाता है, तो घर वाले उसे निर्दोष करार देते हुए आरोप जड़ देते है, हम मुस्लिम है, इस लिए निशाना बनाया गया। हर अपराधी, निर्दोष, निरपराध और सरल इतना की वह बहकावे में आ जाता है। लोकतन्त्र जब जातीय उन्माद और धर्म के गलियारों का साक्षी बनने की तरफ कूच करने जाता है तो गलाजत में सियासत करने वाले उन कालिख पुते चेहरों को तुरंत निर्दोष होने का सर्टिफिकेट खुद जारी कर देते हैं। आज कल उत्तर प्रदेश की सियासी बिसात पर जाति और धर्म की गोटिया फेंटी जा रही हैं। समझना होगा उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण चुनावी परिणाम का सबसे मजबूत कारक है।
जम्हु रियत के बुर्ज पर जब बैठा हो, सियासत गिद्ध रस्तों में जुट जाते है। जाति, धर्म और कुनबों के जरिए सफलता के रास्ते की खोज चुनावी दस्तक के साथ बस एक बात नेताओं की जबान से बाहर आती है तुम कौन जाति हो इसी मर्म के आधार पर फिलहाल देश में लोकतन्त्र व धर्म निरपेक्षता की गाड़ी रफ्तार के साथ दौड़ रही हैं।
अभी तक जाति का परचम संभाले उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव व बिहार में लालु प्रसाद यादव ही नजर आते थे, अब एकाधिकार को ध्वस्त करने की कोशिश में कांग्रेस के मालिक राहुल गांधी लाईन में सबसे आगे खड़े होने की मुहिम में लगे हुए है। 21वीं सदी के भारत में विकास की बाते अब नेताओं के भ्रष्टाचार और जातीय उन्माद पर आ टिकी है।
संविधान सभा में कभी नेहरू, अम्बेडकर और पटेल ने जातीय जनगणना का विरोध किया था। इन्दिरा गांधी ने भी नारा दिया था, ‘जाति पर न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’ अब उसी हाथ वाली पार्टी का मालिक जातीय उन्माद की दुदंभी बजाता हुआ सामने है।
निरंतर असफलताओं के चलते कांग्रेस के बौद्धिक टैंक ने शायद सलाह दी होगी कि जाति का नारा उछाला तो शायद सफलता का हाईवे पर आपकी गाड़ी रफ्तार पकड़ लें। कांग्रेस के महापुरुषों ने यह बताया कि बंगाल में ममता, बिहार में लालु और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को मुस्लिम वोट मिलना तय है लेकिन इन राज्यों के अलावा राज्यों में कांग्रेस ही मुस्लिम वोटों का विकल्प है।
मतलब जातीय जनगणना की मांग को असर दलित और ओबीसी पर पड़ना तय है और यदि मुस्लिम जुड़ जाए तो सत्ता को तरसती कांग्रेस को शायद बरसों बाद दिल्ली का ताज करीब नजर आता दिखने लगे। विरोधाभास देखिए लोहिया का नाम जपने वाली समाजवादी का आधार जाति है, जबकि लोहिया जातिवाद के कट्टर विरोधी थे। उन्होने अपने समय पर जाति तोड़ो आंदोलन चलाया था। देखना होगा, भ्रष्टाचार जाति और धर्म के त्रिकोण में उलझे भारत को लोकतन्त्र कि आबोहवा किस कदर बिगड़ती है, बस समय का इंतेजार हैं।