लोकतन्त्र यानी लोक का तंत्र, लोक मतलब जनता और जनता जब भीड़ तंत्र का सजावटी सच बन जाए तब राजनीति के तबेलों में पुत्र तंत्र का नजारा आम हो जाता है। भारत की सियासी फिजां में ‘गरीब’ शब्द बरसों से पहले पायदान पर मुस्तैदी से डटा हुआ है। गरीबों को अमीर बनाने का रिस्क कोई भी उठाना नहीं चाहता। अमीर मतलब खाती-पीती जिंदगी, सुबीते का जीवन अगर ये हो गया तो सोच का दायरा बढ़ेगा।
तब पुत्र मोह की बिसात पर राजयोग की वैतरणी पार करने में बाधाओं का सच पैदा कर देगा। ये फार्मूला अमीर बनाने का नहीं गरीबी बरकरार रखते हुए तुच्छ सहायता का मार्ग आसान भी है और अपनी चमक बरकरार रखने का उपाय भी। आप तस्वीरों के जरिए जख्म का इलाज नहीं कर सकते, लेकिन जख्म के कारणों को समझने का जोखिम तो उठा ही सकते हैं। लोकतन्त्र की शाखों पर लटके पैरासाइट आज खुद को भारत का भविष्य बनाने की होड में है।
सिद्धान्त और पार्टी का उद्देश्य पांच साल। चुनावी प्रश्न, घोषणा पत्र के साथ सामने आता है। उसके पहले राजकुमारों के लिए लांचिंग पैड की व्यवस्था को मजबूत बनाने की मुहिम जारी रहती हैं। कुछ लांचिंग पैड के जरिए खुद की जमीन तैयार करने में सफल हो जाते है, तो कुछ अधूरे सपनों को समझ नहीं पाते हम कहां हैं और आगे क्या करना हैं। फिलहाल दक्षिण से लेकर उत्तर तक सियासी परिवारों का चलन है। ये लोकतन्त्र के लिए अजूबा नहीं कहां जा सकता। नेहरू काल की समाप्ति के साथ पारिवारिक सियासी अनुष्ठान की नींव पड़ी।
समय के साथ राजनीतिक परिदृश्य से कांग्रेस की उपस्थिती सिकुड़ती गई और इसी के साथ क्षेत्रीय क्षत्रपों की पकड़ मजबूत होती गई। मसलन उत्तर प्रदेश और बिहार के संदर्भ को टटोले तो वंशवाद की अमर बेल से पहले विस्तारित थी, दक्षिण में करुणानिधि का पुत्र प्रेम डीएमके की पहचान बन गया, हाल में तमिलनाडू के मुख्यमंत्री एम.के स्टालिन ने पारिवारिक विधा को एक कदम और आगे बढ़ाते हुए बेटे उदयनिधि को उपमुख्यमंत्री पद दे दिया।
2002 में मंत्रिपरिषद में शामिल हुए थे। कुछ इसी तर्ज पर कभी करुणानिधि ने एम.के स्टालिन को पहले उपमुख्यमंत्री बनाया था, फिर मुख्यमंत्री कुर्सी उन्हें सौंप दी। केरल को छोड़कर दक्षिण भारत पारिवारवाद की वंशावली का अद्भुत उदाहरण कहा जा सकता। कर्नाटक का देवगौड़ा का परिवार। दो बेटे में एक एच.डी कुमार स्वामी फिलहाल मोदी सरकार में मंत्री हैं। स्वामी दो बार कर्नाटक में मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं।
वहीं तेलंगाना व आंध्रप्रदेश जैसे दोनों राज्यों को परिवार की सियासी वंशावली बढ़ाने की अद्भुत कला का सच कहां जा सकता है। आंध्र के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू के बेटे नारालोकेश फिलहाल नायडू सरकार में मंत्री हैं। वहीं तेलंगना में जब चन्द्रशेखर राव मुख्यमंत्री थे, तो वह उनकी सरकार में आईटी विभाग के मंत्री हुआ करते थे।
मतलब जिस परिवारवाद के चलते उत्तर भारत आलोचना का केंद्र बिन्दु हुआ करता था। कमोवेश उसी की पुनरावृति करता दक्षिण भारत सामने है। पंजाब में कभी प्रकाश सिंह बादल का एक छ्त्र राज था। उन्होंने कमान अपने बेटे सुखविर सिंह को थमा दी। जब बादल मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने भी सुखविर को पहले उपमुख्यमंत्री पद से नवाजा था। वह जीत व हार का मिश्रण बनकर फिलहाल बादल पीछे खड़े नजर आते हैं।
हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल एक और नायाब उदाहरण के सामने हैं। इनके दो बेटे कुलदीप बिश्नोई, फिलहाल भाजपा में है, तो दूसरा बेटा चन्द्र मोहन कांग्रेस पार्टी में हैं। बंसीलाल ने कांग्रेस से अलग हो कर जनहित कांग्रेस बनाई थी, लेकिन उनके बेटे उसे कायम नहीं रख सके। बाद में इस पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। तीसरे हरियाणा के लाल थे देवीलाल।
1989 में देवी लाल वी.पी सिंह मंत्रिमंडल शामिल हुए तो पुत्र ओमप्रकाश चौटाला को उत्तराधिकारी बना दिया। बाद में यहीं चौटाला भ्रष्टाचार में जेल यात्रा का सुख भोगने का अवसर मिला। वहीं बात करें उत्तर भारत के सबसे चर्चित चेहरा लालुप्रसाद की तो कहां जा सकता है। निहायत घटिया राजनीति के संरक्षण में लालु यादव ने दस साल बिहार में एक छत्र राज किया।
चारा घोटाला में जेल गए तो अनपढ़ पत्नी को मुख्यमंत्री पद पर बढ़ा दिया। दो पुत्र तेजस्वी व तेजप्रताप यादव को आगे बढ़ाया, उपमुख्यमंत्री और मंत्री का तोहफा दिया। दोनों पुत्र अल्प शिक्षित लेकिन सत्ता में हनक बरकरार रही, फिर रेलवे नौकरी के बदले जमीन के मामले में पिता पुत्र दोनों फंसे । यह अल्प विवरण हैं इस परिवार की कार्यशैली और घोटालों के जानिब।
वहीं झारखंड में शिबू सोरेन भ्रष्टाचार की अनुपम शैली की अकेली शख्सियत कहें जा सकते है। नोट फॉर वोट में इनके सांसद बिके थे। अपनी कमान हेमंत सोरेन को सौंपी। हेमंत भी खनन भ्रष्टाचार में जेल सुख भोग चुके हैं। पार्टी और परिवार में बगावत की भी खबर है। सियासत के ये सारे बेवड़ों ने गरीबों के नाम पर राजनीति चमकाई और खुद अरबों के मालिक बन गए और गरीब वहीं का वहीं रह गया। कहां जा सकता ये राजनीति के फकीर नहीं सियासी ठग है।