ख़ौफ़ज़दा मत हो पर एहतियात का दामन भी मत छोड़ो। MPOX (एमपॉक्स) हक़ीक़त में क्लैड-1 की नई साखा है, जो इन्सानों द्वारा पैदा किए गए पर्यावर्णीय विनाश और निहायक गंदगी के बीच आम जिंदगी का निवास भी इसका विस्तार का मुख्य कारण बताया जाता है। इतिहास के पन्नों में टटोले सबसे पहले MPOX वायरस 1958 में जनमार्ग के कोपनहेगन स्थित एक पशुशाला में फैला था। उसके बाद तकरीबन 12 साल के दौरान MPOX (एमपॉक्स) के विस्तार की कोई सूचना नहीं थी। अचानक 1970 में खबर मिलती है की कांगो के एक शिशु में इसका वायरस पाया गया। गरीबी और गंदगी में जूझ रहे अफ्रीकन देशों में स्थित भयावह संकेत थे कि तभी पता चला कि MPOX (एमपॉक्स) बुरुण्डी, केन्या, रवांडा और युगाण्डा जैसे देशों में वायरस का क्लैड-1 संस्करण दस्तक दे चुका है। जबकि इन देशों में इसके पहले वायरस का नामों निशान न था। चौकाने वाली खबर थी की स्वीडन जैसे देश की जहा MPOX (एमपॉक्स)दस्तक दे चुका था।समझना होगा कि स्वीडन एक ऐसा देश जो पर्यावरण संतुलन और बेहतरीन आबोहवा के लिए विश्व में अपने पहचान के साथ सामने है। फिलहाल खतरे के ज़द में भारत ही नहीं ब्रिटैन, इज़राइल, अमेरिका, सिंगापुर, फ्रांस,जर्मनी, पुर्तगाल, आस्ट्रेलिया और इटली भी है। भारत फिलहाल तैयारियों के साथ सामने है लेकिन समझना होगा जब शिकायत यूरोप और एशिया जैसे महाद्वीप से आने लगी हो तब भारत को पहले से ज्यादा संभलने की जरूरत है।कोविड की उन स्याह रातों की तस्वीर आज भी झकझोर जाती है जब खुद को पता नहीं था कि आने वाले कल की सुबह जीवन की अंतिम शाम होगी। गज़ब का मंजर था, एहतियात के दायरे में जकड़ा मुल्क सिसकियों के बीच दो-चार हो रहा था। अखबारों का हर सफा मौत की खबर के साथ इंतेजामात की बुलेटिन ज़ारी करता सामने था। इस आपाधापी में सुकून के मायने गुम हो चुके थे और घरों में कैद करोड़ों-करोड़ लोग एक नयी सुबह की तलाश में वर्तमान के झंझावातों से दो-चार हो रहे थे। 2020 में कोविड फैलने की अधिकारी पुष्टि होती है और 12 अगस्त 2024 तक थमने के बावजूद मौत की छिटपुट खबरें सुर्खियों के साथ संशय के दायरे में विगत के भयानक मंजर का सच पेश करती हुई सामने हैं। समय के साथ बदलाव की बयार जैसे ही रफ्तार के मायनों थामती पेशआन हुई कि एक और कुदरत का कहर MPOX (एमपॉक्स) के रूप में दस्तक देता सामने है। यह भी वायरस है और स्तनधारी जानवरों से इंसान तक पहुंचता है।
फिलहाल देशव्यापी अलर्ट के साये में चेतावनी का सिलसिला ठीक उसी तर्ज़ पर सामने है जैसा कोविड के दौर में आम जनता देख और भोग चुकी। लक्षण कोविड की तरह हैं इसकी अवधि लगभग चार सप्ताह मानी गई है। तेज बुखार, शरीर में फफोले, कंपकपी इसके प्रमुख लक्षण कहे जा सकते हैं। खतरा भारत के लिए है क्योंकि पाकिस्तान MPOX (एमपॉक्स) के ज़द में आ चुका है। सबसे खतरनाक हालात एशिया के हैं जहां पर MPOX (एमपॉक्स) का सबसे खतरनाक वैरिएंट दस्तक दे चुका है। भारत पहले से ही कोविड की सिरहन भरी दास्तां का गवाह है।
सवाल व्यवस्था के नायकों से हैं अगर MPOX (एमपॉक्स) कोविड जैसी महामारी दोहराता हुआ भारत को अपने गिरफ्त में लेता है तो क्या हमारा तंत्र फिलहाल उसके मुक़ाबले के लिए तैयार है। अनुभवों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त इस बात का प्रमाण है जब कोविड के तांडव से पूरा मुल्क दो-चार हो रहा था, तब सरकारी तंत्र, भ्रष्टाचार के मंत्र को खुलेआम बांच रहा था। गिरती लाशों से बेपरवाह मुलाज़िम, लूट की खुली दास्तां का गवाह बनकर सामने थे। रूह कंपा देने वाली खबर से जब बेखबर थे व्यवस्था के नायक उन खबरों पर खामोशी अख़्तियार कर लेते थे जिसमें ऑक्सीज़न की कालाबाजारी, वैक्सीन की ज़माखोरी, अस्पतालों में मारामारी और लाशों को ढोने के लिए एम्बुलेंस मालिकों की सीनाजोरी की खबर आती थी। इसी संदर्भ के मद्देनज़र टटोलते हैं विगत के उस फलसफे को जिसमें दर्ज़ हैं मृत्यु भोज पर जीवन दर्शन का आनंद भोगने वालों का ब्यौरा
आओ मृत्यु भोज पर, जीवन दर्शन का आनंद भोगें
कोरोना के ठलुआ दिनों में सरकारी कारकून मस्ती का पैमाना छलकाने का बोध करा गए। बैठे ठाले वेतन का मुकम्मल इंतेजाम की गारंटी थी तो कुछ अग्रणी पंक्ति के चेहरे महामारी के खिलाफ युद्धघोष के नायक बनके सामने थे। सन्नाटा जब सड़कों को लील रहा था तब बाबुओं का गैंग मास्क से लेकर सैनीटाइज़र तक से कमाई की जुगत में भिड़ा था। जब सफाई अभियान की लज्जत भरी घोषणायें फाइलों में दर्ज की जा रही थीं, फेरो में फेर कर लखनऊ नगर निगम की गाड़ियां डीजल पीने की स्पर्धा में जुटी थीं, तब कमाई की बेखौफ वैतरणी में डुबकी लगाने का अंदाज़ और आनंद ही कुछ और था। आनंद के यही भोगी आज पेंशन आंदोलन व निजीकरण के विरोध की दुंदुभि थामे, सड़कों की कालिमा पर अपनी कुटिलता की नई परत चढ़ाने में जुटे हैं।
क्रांति के दुखद मसीहाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है। जब अनिश्चय, अनिर्णय और असमंजस में देश सिसक रहा था तब सियासत का एक वर्ग ट्विटर पर कोरोना को राजस्थानी कोरोना तो वहीं उत्तर प्रदेश एक नामी नेता वैक्सीन का मज़ाक बनाकर उसे खास पार्टी से जोड़ रहा था। ये वो दौर था जब श्मशान घाटों पर भी दफनाने के लिए घंटों इंतेजार करना पड़ता था। जब हर मुहल्ले और गली-कूचों में अपनों के बिछड़नें की चीत्कार थी। अस्पतालो में जीवन की आस छोड़ते बेसुध इंसानों की कतार थी। ये सवाल उठाया जा सकता है कि कोरोना काल के हालातों का विश्लेषण अब क्यों। समझना होगा कि संक्रमण का दौर लगभग समाप्ति की ओर है तब यही वर्ग कमाई के नए रास्तों के अनुसंधान पर जुट सकता है।
एक तरफ सरकारी कारिंदे आए दिन धमकी चालीसा बांचने में व्यस्त हैं तो वहीं सरकार भी भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति को सख्ती से लागू करने पर अमादा नज़र आती है। तब सवाल पैदा होता हैं कि परिवहन निगम के उन कर्मचारियों पर क्या कार्रवाई हुई जिन्होंने प्रवासी श्रमिकों लाने के लिए बसों के फर्जी फेरों के आधार पर लाखों का डीजल गटक लिया था। क्या कार्रवाई उन अफसरों, इंजीनियरों व बाबुओं पर हुई जिन्होंने कोरोना काल में मास्क व सैनीटाइज़र की घटिया खेप खपा दी थी। यदि आज की तारीख में जीरो टॉलरेंस को सख़्ती के साथ ज़मीन पर उतारा जाय तो यकीन मानें कि कई सरकारी विभागों में सन्नाटा पसर जाएगा। हालत ये कि जहां हाथ रखो वहीं मर्ज़ का धधकता नासूर बदबू के साथ दिख जाएगा। इसी क्रम में लखनऊ को संवारने का ठेका जिनके पास है उस विभाग के 70 फीसदी इंजीनियर बिना सूचना के गायब थे और आज तक न पूछताछ हुई और न ही कार्रवाई हुई। ये सबको पता है कि सरकारी काम में बड़ा सा बड़ा खेल करो समय के साथ मामला स्वतः दब जाता है।
उस दौर में संक्रमण का खतरा कम करने के लिए रसायन का छिड़काव व सफाई की मुकम्मल ज़िम्मेदारी लखनऊ नगर निगम की थी। समझना हगा नगर निगम में एक शब्द “संविदा” बहुत ही प्रचलित है। ये निगम के कर्मचारियों व पार्षदों की कमाई का अचूक सुलेमानी नुस्खा उस काल में भी था और आज भी कोरोना काल भ्रष्ट कर्मचारियों व अफसरों के चेहरे पर लालिमा लाने का कढ़ा बन चुका है। सवाल उठता है जब भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का मुद्दा बदस्तूर गंभीरता के साथ लागू है तो कैसे इन लुटेरों पर आंच तक नहीं आई। ये तो मात्र बानगी हैं जो किन्हीं कारणों से सुर्खियां बन गईं, वरना दोज़ख़ में हीरा तलाशने का जोखिम उठाते रहिए।