बहुत कुछ कह चुका, पर कुछ कह न सका। बेबसी की चादर में वह लिपटी सो गई सदा के लिए। सिसकती व्यवस्था की यह कथा है जिसमें रिसते खून के बीच के सामने बेजान पड़ी महिला डॉक्टर का निस्तेज शव है तो दूसरी तरफ वो भीड़, वो तंत्र और जालिमों का वो झुंड है जो बेटी की लाश के सामने बाप को सांत्वना के साथ मामले को आगे न बढ़ाने की शर्त रखकर पैसों की पेशकश कर रहा है।
निर्भया नाम तो याद होगा, आक्रोश का ज़लज़ला था, हुकूमत खामोश थी, जनमानस कानून की विकृतियों के खिलाफ सड़कों पर था, आक्रोश का नतीजा था सरकार ने कानून में बदलाव किया और समय के साथ सड़कों पर पसरा आक्रोश का गुबार खामोशी की चादर में समा गया। कोलकाता की डॉक्टर तो इंसाफ की अधूरी डगर पर दूर चली गई अरमानों की फ़ेहरिस्त थामे।
एक ओर विपक्षी खेमा ख़ामोशी की चादर में लिपटा लापता है, दूसरी तरफ अर्द्धनग्न डॉक्टर के शव के सामने एक महिला सीएम की बेजान खामोशी बहुत से सवाल-जवाब के इंतजार में खदबदाहट का सच बनकर सामने है। खामोश दियारों में ये खामोशी क्यों। सियासत के दरों-ए-दीवार पर कौन सी इबारत लिखना चाहता है हर वो चेहरा जो मणिपुर पर उत्तेजित था लेकिन अयोध्या की नाबालिग के मसले पर न चेहरे पर शिकन है और न जहर बुझे बयान वाले नेताओं का कोई बयान।
एक बेटी निहार रही है, कफिन के अंदर खामोशी के चादर में लिपटी जवाव मांग रही है, कोई तो बताओ मेरी गलती क्या है। तुम सफेद लिबास में मेरे सामने भीड़ बनाकर खड़े हो, बस एक शब्द कि बहुत बुरा हुआ। बुरा क्यों हुआ कभी मेरे चलती साँसों के दरम्यां सोच लिया होता तो हम भी आजाद परिंदों के मानिंद कल्पनाओं के सागर में वर्तमान के साथ कोई नया सवेरा तलाश रहे होते। उधर देखो… श्मसान घाट पर ये तपिश मेरी निस्तेज देह के निशान को हमेशा के लिए मिटाने के निस्बत नजर आ रही है। समय के साथ राख बनकर किसी कोलाहल करती नदी में बिखेर दी जाऊँगी। लेकिन मेरी वो यादें कैसे मिटा पाओगे जो एक बाप के साये में बिताई थी। माँ की वो लोरियां कैसे छीन पाओगे जिसके साये में खामोश रातें धीरे से दिन में बदल जाती थीं।
चलो अब सब खत्म हुआ, सड़कों का कोलाहल समय के साथ थम जाएगा और इसी के साथ मेरी अल्प जीवन यात्रा विराम की ओर कूच कर जाएगी। माँ का रुदन, बाप की कंपकंपाती देह, भाई-बहन की बोझिल आंखों से टपकता स्नेह कैसे भुला पाऊँगी। बस बहुत हुआ माँ, अब चलती हूँ… मेरे इस शरीर की अंतिम यात्रा है। जीना तो चाहती थी दूसरों के जीवन के लिए…। तभी तो पापा ने डॉक्टरी की पढ़ाई का इंतजाम किया था लेकिन जीवन के विराम के साथ सब थम गया। रो मत माँ, मेरा सफर बस यहीं तक था।
अभी तो तुम्हें बहुत कुछ करना और सहना है जो किसी भी हत्या के बाद होता आया है। बयान होंगे, सुबूत तलाशे जाएंगे, किसको बताएं कि सुबूत तो मेरी लाश है, रिसता खून और गहरे जख्मों का सिलसिला है। कौन से सुबूत चाहिए उन दरिंदों को बचाने के लिए जो मेरी हत्या को आत्महत्या करार देने में जुटे हैं।
सुना है सीबीआई वाले भी आ गए हैं। मेरी लाश के अवशेषों को टटोल क्या पाना चाहते हैं। मौत के बाद ये सिलसिला बंद करो, बंद करो लाशों की तिजारत का खेल। बस उन लाखों बेटियों को जीने का हक दो, सुरक्षा दो और परिंदों के मानिंद उड़ने की आजादी दो
सियासत के दियारे इतने संज्ञाहीन क्यों
ये तमाशा क्यों, आप ही सरकार हो आप ही पश्चिम बंगाल की गृह और स्वास्थ मंत्री फिर सड़कों पर किसे न्याय मांगने की जरूरत पड़ी। सियासत के दियारे इतने संज्ञाहीन क्यों…। एक महिला डॉक्टर की मौत नहीं हत्या थी , आपका महकमा क्यों और किसके दबाव में मामले को दो दिन तक दबाने में जुटा रहा। कैसे समय मिला उस दरिंदे को हत्या के बाद घर जाने और दूसरे दिन यानि शुक्रवार की सुबह फिर अस्पताल आकर सुबूत मिटाने का। क्यों अस्पताल के प्रिन्सिपल को बर्खास्त करने के बजाय उसका तबादला किया गया और तीन दिन बाद पुनः उसी अस्पताल में वापस बुला लिया गया। सवाल सीधा सा है गृह विभाग के वो अफ़सर किसके इशारे पर संबन्धित थाने में एफआईआर न दर्ज करने की सिफ़ारिश कर रहे थे। क्यों और कैसे और किसके दबाव में मृतक डॉक्टर के पिता को मामला आगे न बढ़ाने पर जोर दे रहे थे। मुख्यमंत्री होने के नाते जबाव देना ही होगा, सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वतः संज्ञान लेने के बाद 25 वकीलों का समूह राज्य सरकार द्वारा सरकारी पक्ष पेश करने लिए तैनात किया गया। मकसद क्या था, दरिंदे को बचाना और साथ में राज्य सरकार का दामन पाक साफ़ करा देना। सियासत के कीटों, अपने दामन के दाग को आसानी से मिटा नहीं सकते और सड़कों पर उतरे आक्रोश को विपक्ष की साजिश बता कर अपनों को बचा नहीं सकते।
सुलग उठेंगे दिलों में हसद की आग अगर हवा के रूबरू मेरा चराग चल गया।
दुष्कर्म कथा, दुख के मायने बादल सकती लेकिन उस मंजर को नहीं देखे नहीं जा सकते। मसला कोलकाता का हो या फरुखाबाद के कायमगंज का, सवाल सियासत की सिरफिरे चेहरों से जिंहोने व्यभिचार जैसा मसले की गंभीरता को दर-कि-नार धमकी,आक्रोश और बयानों के दलदले को पेशकर यहाँ भी अपने फायदे और नुकसान का सच बयां कर रहे है। रही बात जनता की तो आज भी आज भी बंद गलियारों में सुलग रही है और इसी सिसक की खामोश आवाज जब राष्ट्रपति भवन की सौंध ने दस्तक देने लगी तो एक लाईन में राष्ट्रपति मुर्मू ने अपनी दर्द को बयां करते हुए सिर्फ इतना कहा।
“मैं निराश और भयभीत”
देश के लोकतंत्रीय ढांचे में उमुमन राष्ट्रपति की टिप्पणियां सामने नही आती है लेकिन कोलकाता के मसले पर उनकी आहत भावनाएं सब कुछ बयां कर गई। नैराश्य व्यवस्था नकारेपन की उपज है और डर सामाजिक कुव्यवस्था से उत्पन हालातों का सच। सवाल किससे किया जाय और जवाब किससे लिया जाय जब हमाम में नंगों की कतार है। विरोधाभास पगडंडियों पर जब सियासत की खुरेंजी इबारत लिखी जा रही हो और किसी बच्ची की अस्मत को इलाके, जाति और धर्म के विभाजनकारी निहारा जा रहा हो तब कहा जा सकता है, हालातों से समझौता करो या चुप रहो। हालात और मसले की गंभीरता के मद्दे नजर उमीद थी। बयानों की सुनामी में कही न कही दर्ज़ की कचोटन और व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करने की आग होगी। लेकिन कोलकाता की दर्द हाशियें में चला गया, शेष रह गया धमकी के साथ फायदे और नुकसान के बही खाते में अपने और पराय के फर्क का सच।
फर्क वैतरणी
शर्मनाक है जमीन पर बिखरे खूनतर सच को अपने-अपने चश्मे से निहारना। हालत देखिये वो सियासी दल जो छोटे-छोटे मसले पर अपना प्रतिनिधि भेजने पर आतुर रहते थे वो खामोश है , कोलकाता आक्रोश की जलजले में सुलग रहा है, तो वहीं ममता बनर्जी धमकी के साथ चेतावनी दे रही है। बंगाल को छूआ तो दिल्ली भी आग की आंच से बच नही पाएगा, सुलग उठेगी असम, त्रिपुरा और नॉर्थ-ईस्ट की खामोश वादियाँ। ये चेतावनी है उस सूबे की मुखिया की जहां एक डॉक्टर के साथ हुए व्यभिचार के खिलाफ सड़क पर है, सुप्रीम कोर्ट सख्त और देश उद्वेलित है। मसला थमें हुए आक्रोश को हवा देने का लगता है। जिनके कंधे पर सशक्त न्याय की ज़िम्मेदारी है। वो बंगाल और दूसरे इलाकों को आग में झोकने की धमकीं दे रही है। फर्क की वैतरणी में डुबकी लगा रहे सियासत के कद्दावर चेहरे खामोशी के आंचल में व्यभिचार के मायनों को अपने तर्ज़ और तर्क के जरिये फरुखाबाद के कायमगंज में दो बच्चियाँ के आत्महत्या से जोड़ रहे है।
ये घिनौनी मनोवृति की कुत्सित सच्चाई है विस्फोटित होकर सामने आई। दियारों में बंधे दायरे जब सोच की चाहरदिवारी की सच्चाई बन जाते है, तब व्यभिचार को एक बच्ची के साथ हुए घिनौने कृत्य को नजरिए से नहीं बल्कि उसे बाट दिया जाता है SC(एससी) और ST(एसटी) में जो वोट बैंक का एक अजमाया हुआ सफल रास्ता माना जाता है। फरुखाबाद इसी रास्ते का हाइवे उन्हे लगा जिनकी राजनीति धर्म, जाति और आरक्षण के इर्द-गिर्द मंडराती है। शायद इसी लिए कोलकाता गौंड है और फरुखाबाद का कायमगंज फायदे का सौदा है जबकि दोनों तरफ अधर्म की दास्तां है, कुकर्म का विखरा सच है और दोनों तरफ ही बच्चियों की दुर्दशा की दास्तां है।