सुना है उत्तर प्रदेश परिवहन निगम 12 हजार बसों की मालिक है। अफसरों के चेहरे पर मालिकाना हक दूर से नजर आती हैं लेकिन बेचारी बसें अपने चाल-चलन के जरिए जर्जर बसों का तमगा लगाए। ऐसा इठलाती सामने हैं मानों साजो-समान से निखरी चमक के साथ कोई वाल्वों मोहतरमा जा रही हैं। सवाल सीधा सा हैं, यू.पी. की सरकारी बसें चलती कैसे हैं, ये खोज का विषय हैं।
जर्जर बसों की बेड़ा संभाले रोडवेज के एमडी व प्रधान प्रबन्धक महोदय सफर सुहाना बनाने के उद्देश्य से जापान घूम आए और वहां के व्यवस्था से इतना प्रभावित हुए की घोषणा कर डाली कि लखनऊ के बस स्टेशनों पर अब ट्रेनों कि तरह बसों के आगमन व छूटने कि सूचना प्रसारित की जाएगी। ये छोटा सा तोहफा बिना जापान गए भी पेश किया जा सकता था, लेकिन ये हाकिमों कि दुनिया हैं, ये कुछ भी कर सकते हैं।
सवाल सीधा सा हैं जब अफसरान मस्खरी कर सकते हैं, तो मंत्री किसी से कम हैं। याद करे पद संभालते ही परिवहन मंत्री साफ सुथरी बसों का वायदा करते हुए, हर बसों को पर्फ़्यूम से सराबोर करने का आदेश दिया था। सुखद यात्रा का ये बेहतरीन राग था। जो बजरिए बयान सामने आया और कहां गुम हो गया आज तक इसका पता नहीं। मंत्री माई-बाप हैं और अफ़सरान रोडवेज के हाकिम-हुक्काम।
ये विशेषाधिकार का खूबसूरत नगमा हैं जबकि हकीकत में सरकारी बसों का रेवड़ आज भी खटारा शब्द के अनुरूप सड़कों कि शोभा बढ़ाते हुए सामने हैं। 12 हजार बसों के साथ एक हजार एसी बसों का खजाना समेटे रोडवेज के कुल 20 रीज़न में 115 डिप्पों हैं यानी भरा-पूरा परिवार फिर भी अपाहिज प्रबंधन, हजारों कर्मचारी, लाखों-लाख का घाटा बिना फिटनेस के शोर मचाती जर्जर बसों की दुनिया परिवहन निगम कहलाती हैं।
सवाल उठता हैं, बकौल अफसर जब आरामदायक सफर का वायदा करते हैं, तो खुद क्यों एसी बसों पर चलते हैं। आप भी आम आदमी की तरह जर्जर बसों के आनंददायक सफर का लुफ्त क्यों नहीं उठाते। 44 डिग्री तापमान पर आग का गोला बने टिन के डिब्बे सरीखी बसें उनके लिए हैं, जो आम आदमी कहलाती हैं। सरकारी एसी गाड़ियां, सरकारी पेट्रोल और सरकारी ड्राइवर की सुविधा के साथ सरकारी नौकरी का मजा ही कुछ और हैं। और इन्ही सुविधा भोगियों की जिम्मे हैं सरकारी बसों का संचालन।
बसें कैसे चल रही हैं इनको नहीं पता। आप सफर का आनंद भोगिए तब समझ में आ जाएगा। गांधी बाबा के असहयोग आंदोलन का मर्म लगता हैं। गांधी बाबा से प्रभावित बसों के हर हिस्से को असहयोग की ट्रेनिंग मिलती हैं। आपके शरीर और सीट के बीच कोई तालमेल नहीं, खड़ड़ाती बसों का शोर, गियर और इंजन के बीच तकनीकी असहयोग का सच इस बीच जुगाड़ से बसों का खिचता ड्राइवर इस बात का प्रमाण हैं की ये तालमेल नहीं आपसी असहयोग का जीता जागता सच हैं।
सोचिए पर्फ़्यूम से नहाई, गंदगी से सनी बसें, टूटी खिड़कियों से झांकते सूरज देवता का तप, इंजन की कर्कश आवाज और फंसे गियर के नखरों के बीच और दगते टायरों का आनंद ही कुछ और हैं। रोडवेज के आलाहाकिमों का अपना अलग रसूख हैं, मोटी तनख़्वाह, सुविधाओं का अम्बार के बीच उन्हे कहां फुर्सत कि बसों की मरम्मत के लिए 15 लाख का रिवाल्विंग फंड डिप्पों को क्यों नहीं भेजा गया। महीनों से ये फंड बंद हैं, जबकि नियमतः हर महीने ये फंड डिप्पों तक पहुंचाना जाना था, ताकि रेपियरिंग के लिए कल पुर्जों की कमी न हो।
कौन जिम्मेदार हैं जुगाड़ तंत्र से चलती बसों, बिना फिटनेस के डिप्पों बाहर जाती बसों के लिए जवाब देह खामोश हैं और अपने को बचाने के लिए दिए गए जवाब लगता हैं, फाइलों के किसी कब्रिस्तान में दफन हैं। अब गौर करते हैं एमडी व प्रधान प्रबन्धक आई टी के खुशनुमा फैसलों पर कितना आकर्षक दृश्य हो रहा जब लखनऊ के बस स्टेशनों से सुनाई पड़ेगा बस नंबर फला-फला, टूटी खिड़कियों, गंदगी से सराबोर बसें हिलते डुलते गियर व घिसे टायरों के साथ गंतव्य कि ओर प्रस्थान करने वाली हैं।
खटारा बसें ट्रेकिंग डिवाइस से लैस हैं, सुरक्षित व शुभयात्रा कि कामना। संशोधन के साथ निवेदन हैं घोषणा में ये भी बताना चाहिए कि फिटनेस के साथ ये बसें गंतव्य तक पहुंची या बीच में ही यात्रा समापन के साथ थप हो जाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं।
सवाल उठता हैं, अकर्मण्यता, कुव्यवस्था, भ्रष्टाचार और लूट के शिकंजे में कसमसाते परिवहन के एमडी महोदय को लाखों खर्च कर जापान भेजने का खाका किसे तैयार किया था, किसके दस्तखत से यात्रा कि इजाजत मिली, इससे क्या लाभ होगा इसकी जांच होनी चाहिए।
समझना होगा कि तामझाम, विदेश यात्रा और कर्मचारियों के लावलश्गर बिना निजी बसें क्यों लाभ देती हैं। क्यों निजी टायर नहीं फटते, खिड़कियों टूटी नहीं रहती, इंजन और गियर के बीच तालमेल का अभाव नहीं रहता। जबकि उनका अपना वर्कशॉप होता है और न ही रोडवेज की तरह ड्राइवर, कंडक्टर व खलासी को मोटा वेतन, बोनस व भत्ता तक नहीं मिलता।
कुछ सवाल
- – क्यों एक घंटे का सफर के लिए तीन या चार घंटे लग जाते हैं।
- – बिना मालिक के कैसे बुक कर दिया जाता हैं।
- – गंतव्य का टिकिट तो बनता हैं, लेकिन बसें जहां से चलती हैं। वहां के आने वाले स्टापेज से टिकिट काट लिया जाता हैं।
- – फिटनेस सर्टिफिकेट के बावजूद कैसे जर्जर बसें वर्कशॉप से बाहर निकलती हैं।
- – रिवाल्विंग फंड 15 लाख का हैं, लेकिन महीनों से कैसे बंद हैं, कमाल की बात हैं कि प्रबन्ध निदेशक भी फरमाते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं।
- – 40-45 डिग्री तापमान में टिन के डिब्बे सरीखी बसों में पॉपकॉर्न की तरह यात्री भुन रहे हैं, लेकिन राहत कि कोई योजना नहीं।
- – क्यों नहीं पंजाब व हरियाणा की तर्ज पर बसों की टिन वाली छतों के नीचे लकड़ी की छत लगाकर गर्मी की तपन को कम करने की योजना बनाई गई।
- – फर्स्ट एंड बॉक्स बसों में दावों के बावजूद क्यों नहीं लगाए जाते।
दावों और आश्वासनों के बीच सरकारी बसों का काफिला किया। यों ही मंत्री व अफसरों के बयानों का जख्म झेलता रहेगा या आने वाले कल में बदलाव की रंगत से भी परिवहन निगम दो चार होता दिखाई देगा।