सियासत की मौजूदा हरारत बताती है, जुमलों से इतर कुछ करने की सोच आज भी बाल बोध की महती कल्पनाओं के दायरों में है आए दिन होने वाली क्रांतिवीरो जैसी घोषणाओं का बढ़ता ज़ख़ीरा एक नयी समस्या के सामने आई। तर्ज़, तंज़, तुक जस का तस बस चेहरों का फर्क सामने नजर आता हैं। संदर्भ को टटोले तीन किरदार उत्तर प्रदेश सरजमीं पर मायनों को कभी बेमानी करते और कभी मायनों के सकारात्मक संदर्भों के साथ उत्तर प्रदेश का सच बन जाते रहे हैं।
अखिलेश यादव, मायावती और छिटपुट के जोड़ के मौसमी चरित्र रहे राहुल गांधी। मसला जब वैचारिक चरित्र का आता है, तब इनके किरदारों का एक अलग सच उजागर होता हैं। हालत देखिए जातीय राजनीति की जिस नर्सरी का मालिक कभी समाजवादी पार्टी समझी और मानी जाती और आज जातीय जनगणना के मुद्दा उठाकर वो चुनौती के रूप मे सामने हैं और अखिलेश यादव खामोशी के साथ फिलहाल आने वाले कल के माहौल को शायद परखने में जुटे हैं।
मसला केवल यही तक सीमित नहीं है, एक कदम आगे बढ़कर राहुल गांधी पिछड़ो को साथ-साथ दलितों की बात करते हैं तो समझना होगा कि वो परोक्ष में मायावती को भी समेटने की कोशिश में हैं। यह मजबूरी का समझौता कहे या आने वाले कल की भयावह सच्चाई से निपटने का जतन हैं। मसला जब सियासी कमजोरी पतन का आता हैं, एक शिगुफा विधायकों को तोड़ने यों कहे लालच की एक मुहिम को पेशकर ये बताने की कोशिश की गयी तुम सौ विधायक लाओं और सरकार बनाओं।
इसे नैतिक पतन की पराकाष्ठा कहे या वियधायकों की इस भीड़ को बिके ज़मीर का योद्धा सही मायनों में अखिलेश यादव के इस बयान सियासत के गलियारे खामोश थे और कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी टिप्पणी करने से बचती नजर आई। हकीकत में ये माननीय नहीं बल्कि सियासत की मंडी के महंगे समान ज्यादा नजर आते हैं। कुछ ऐसे ही हालातों से दो चार हुआ था।
राजस्थान जब विद्रोह का परचम उठाए गहलोत साहब विद्रोह के चिंगारी को राख़ में बदलने के लिए विधायकों की मंडी में खुलेआम बोली लगा रहे थे। शायद समाजवादी पार्टी उस सफल अभियान को उत्तर प्रदेश की सरजमीं में उतारने की मंशा रखती हो, लेकिन इतना तय है कि फिसलते इखलाक के ये वो बदतर ईमान के नायक हैं। जिनके मुक़ाबले वैशयों का इखलाक ज्यादा मायनें रखता हैं।
सियासी घमासान के बीच दोस्ती और पाखंड के फर्क को कैसे समझा जाए। आने वाला कल एक नए सहयोग और दुर्योग का सच होगा इसको आज ही विश्लेषित करना जरूरी हैं क्योकि उत्तर प्रदेश से संबधित है और देश कि राजनीति का ध्रुव बिंद यही सूबा है, इसे इनकार नही किया जा सकता हैं।
पथरीली पगडंडी पर चेहरों कि नफासत उसकी शख्सियत का पैमाना मत समझो खासकर उत्तर प्रदेश में चरित्र व चाल के फर्क को समझने के लिए किसी खास विशेषज्ञता कि जरूरी नही पड़ती वास्तव में ये प्रयोग स्थली हैं। कलतक जिस पार्टी को उस देश कि झूठी पार्टी के तमगे जो साहब नवाज रहे थे। वही विगत लोकसभा चुनाव में उसी पार्टी का नामचीन चेहरा तथाकथित झूठी पार्टी के साथ गलबहियां डाले चुनावी में फतेह का ऐलान कर रहे हैं।
मौजूदा तथ्य और उन्ही किरदारों का जब विश्लेषण करा जाता इसमें एक और किरदार मायावती के रूप में शामिल हैं। जो तमाम असफलताओं के बावजूद अपना रसूख और उपयोगिता को किसी हद तक समेटे सामने हैं। बात जब किरदारों कि आती हैं तो हरेक के अपने-अपने तर्क हैं, तो भाजपा उन्हें भोतरा करने के कुतर्क के साथ सामने हैं।
समय के साथ राजनीति पाखंड हर सियासी दल का दर परदा मुद्दा है और 24 करोड़ जनसंख्या वाला ये प्रदेश संशय ये आने वाले कल कि इबारत किसके नाम लिखेगा इसपर दो टूक कहना जोखिम उठाने जैसा सच होगा। फिलहाल भाजपा पार्टी कि सोच योगी के इर्द-गिर्द तक सीमित हैं और समाजवादी पार्टी व कांग्रेस मौके के इंतजार में हैं।